Sunday, April 27, 2025
Google search engine
Homeदेशबलिदान की अमरगाथा-भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु

बलिदान की अमरगाथा-भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु

“इंकलाब जिंदाबाद!”
“जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल!”

23 मार्च का दिन भारत के इतिहास में वीरता, बलिदान और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है। यही वह दिन था जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश की आज़ादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था।

23 मार्च 1931 – बलिदान की अमरगाथा

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाने वाले इन तीन वीर सपूतों को लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई थी। उनका अपराध बस इतना था कि वे अपने देश को स्वतंत्र देखना चाहते थे, अपने लोगों को गुलामी की बेड़ियों से आज़ाद कराना चाहते थे।

जब फांसी का समय आया, तब भी वे मुस्कुराते रहे और “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे गूंज उठे। कहते हैं कि भगत सिंह फांसी से पहले ‘लेनिन’ की किताब पढ़ रहे थे और जब जेल अधिकारी उन्हें फांसी के लिए बुलाने आए, तो उन्होंने कहा—
“रुको, पहले एक क्रांतिकारी से मिल तो लूं!”
फिर वे किताब बंद कर मुस्कुराते हुए बोले—
“चलो, अब क्रांति को अमर करने का समय आ गया है!”

क्यों दी गई थी फांसी?

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर षड्यंत्र केस (Saunders Murder Case) के तहत फांसी की सजा सुनाई गई थी।

17 दिसंबर 1928 को इन्होंने ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या कर दी थी। उनका मकसद लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज का बदला लेना था, जिसमें लाला जी की मृत्यु हो गई थी।

इसके बाद 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंका, ताकि ब्रिटिश सरकार को यह संदेश दिया जा सके कि भारतीय युवा अन्याय के खिलाफ चुप नहीं बैठेंगे।

उन्होंने कोई भागने की कोशिश नहीं की, बल्कि खुद को गिरफ्तार करवाया और अपने विचारों को ब्रिटिश अदालत में पूरी दुनिया के सामने रखा।

भगत सिंह – विचारों की मशाल

भगत सिंह सिर्फ़ एक क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत भी थे। उनका मानना था कि—
“बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं लाई जा सकती, क्रांति की मशाल विचारों से जलती है।”

उनका सपना था एक स्वतंत्र भारत, जहां हर किसी को समान अधिकार मिले, कोई जाति-धर्म का भेदभाव न हो, और शोषण की कोई जगह न हो।

सुखदेव – निडर सेनानी

सुखदेव क्रांतिकारी दल ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HSRA) के सक्रिय सदस्य थे। उन्होंने युवाओं को क्रांति की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया और अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह को संगठित किया।

राजगुरु – वीरता की मिसाल

राजगुरु एक शानदार निशानेबाज और बहादुर क्रांतिकारी थे। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष में हमेशा बढ़-चढ़कर भाग लिया और भारत माता की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।

कैसे दी गई थी फांसी?

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने डर के कारण एक दिन पहले, 23 मार्च को ही गुपचुप तरीके से शाम 7:30 बजे फांसी दे दी।
कहा जाता है कि जेल के कर्मचारी भी इन वीरों की फांसी के पक्ष में नहीं थे, इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने जबरदस्ती अन्य कर्मचारियों से फांसी दिलवाई।

फांसी के बाद जेल प्रशासन ने उनके शव जेल की पिछली दीवार तोड़कर चोरी-छिपे सतलुज नदी के किनारे जलाने की कोशिश की, लेकिन जब आसपास के लोगों को इसकी खबर लगी, तो उन्होंने विरोध किया और उनके पार्थिव शरीर को सम्मानपूर्वक अंतिम विदाई दी।

23 मार्च – शहीद दिवस क्यों?

भारत सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को सम्मान देने के लिए 23 मार्च को ‘शहीद दिवस’ घोषित किया। इस दिन पूरे देश में इन क्रांतिकारियों को याद किया जाता है और उनके बलिदान को श्रद्धांजलि दी जाती है।

आज के भारत में उनकी प्रासंगिकता

आज भी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का बलिदान हमें यह सिखाता है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ना जरूरी है, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है।
वे स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए हमें यह संदेश दे गए कि देशप्रेम केवल शब्दों से नहीं, बल्कि कर्मों से सिद्ध होता है।

Yashaswini Bajpai

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments